मणिपुर में जो संकट चल रहा है उसमें सबसे महत्वपूर्ण नई बात यह हुई है कि गृहमंत्री अमित शाह हालात को काबू में करने के लिए वहां पहुंचे.
यह नई दिल्ली से दूर स्थित राज्य का फटाफट किया गया दौरा नहीं था. वे वहां पहुंचे, प्रेस से बात की, राज्य सरकार और सरकारी अधिकारियों के साथ दो बैठकें कीं, कुछ प्रतिनिधिमंडलों से मिले और वापस रात बिताने घर लौटे. चार दिनों तक वे वहां टिके रहे.
गृहमंत्री के रूप में किसी उपद्रवग्रस्त राज्य का खुद का उनका यह सबसे लंबा दौरा तो था ही, शायद दूसरे किसी गृहमंत्री ने भी इस तरह किसी राज्य की राजधानी में इतना लंबा समय नहीं बिताया होगा.
यह बताता है कि नज़र-से-दूर-ख्यालों-से-बाहर माने गए इस क्षेत्र में उभरे संकट को सरकार सबसे ज्यादा प्राथमिकता दे रही है. इसलिए, यह अच्छी बात है कि गृहमंत्री ने मणिपुर को इतना वक़्त और इतना राजनीतिक महत्व दिया.
इतने लंबे समय ने उन्हें उस पेचीदा राज्य की हकीकतों को चुनावी राजनीति के चश्मे से अलग रखकर देखने का मौका दिया होगा. 1970 के दशक में उस क्षेत्र के पुनर्गठन और नये राज्यों की स्थापना के बाद के इन पांच दशकों में एक चीज निरंतर देखी गई है कि केंद्र में जो भी सरकार रही वह वहां अक्सर अपनी या अपने वफ़ादारों की सरकार बनाने के लिए ताकतवर स्थानीय कुलीन तबके को अपने पाले में करती रही है या उसे अपने साथ जोड़ती रही या उनमें फूट डालती रही है.
यह कांग्रेस ने अपने समय में किया, 1977 के बाद जनता पार्टी ने भी अपने छोटे कार्यकाल में ऐसा ही कुछ किया. इसलिए भाजपा ने भी वहां कोई नया काम नहीं किया, फर्क सिर्फ पैमाने का रहा.
अगर आपकी पार्टी या उसका राष्ट्रीय पैमाने पर कोई बहुत छोटा सहयोगी उत्तर-पूर्व में राज करे, तो यह जोश ही पैदा करता है. इंदिरा या राजीव गांधी के जमाने में, उदाहरण के लिए त्रिपुरा में, यह दुर्लभ रहा क्योंकि वाम दल इंदिरा की कांग्रेस को परास्त करता रहा. लेकिन आज उस क्षेत्र का राजनीतिक नक्शा नाटकीय रूप से बदल गया है. भाजपा वहां जिस तरह से छा गई है, उसका इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता.
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